अपराध
-आनन्द कुमार
(1)
गौरव - 1
नुक्ताचिन है मेरा दिल इस बात पर, सवाल क्यों उठाई जाती है मेरी औकात पर। सब लोग एक जैसे नहीं होते। कुछ लोग बहादुर होते है , तो कुछ लोग मुझ जैसे भीतू होते है। फिर क्यों मज़ाक उड़ाया जाता है मेरा ?
कुछ काम की तलाश में दिल्ली आ गया। आया क्या, ज़बरदस्ती माँ-बाप ने भेज दिया। यहां आते ही किसी ने मेरा बटुआ मार लिया। मेरा id कार्ड, आधार कार्ड, रुपये सारे गुम।जान -पहचान का भी कोई नहीं। मैं भूखे- प्यासे दिनभर सड़क पर भटकता रहा। करीब शाम को एक सुनसान सड़क से गुजर रहा था कि तभी पीछे से आवाज़ आनी शुरू हुई - “चोर चोर।” पीछे मुड़कर देखा, तो देखा - एक आदमी एक लेडीज पर्स लिए बेतहासा भाग आ रहा है। लोग उसके पीछे पत्थर फेंक रहे है। वह अबतक मेरे करीब आ चुका था। उसने पर्स बीच सड़क पर गिरा दिया , यह सोच कर कि लोग उसे लेकर वापस लौट जायेंगे। लोग अभी थोड़ी दूर थे। मैंने वह पर्स उठाया और एक तीसरी तरफ भागने लगा। अँधेरा था शायद इसलिए लोगो ने ये नहीं देखा।
जब मै काफ़ी दूर निकल गया, तब मैने पर्स खोली। उसमे मेरे काम की दो चीजें थी , दूसरा- पैसा और पहला- सोने के दो कङ्गन। उस पैसे से मेरा दो दिन का काम चल गया पर इस बीच मुझे कोई काम नहीं मिला। जब पैसे ख़त्म हो गये तो मैं कङ्गन बेचने चला।
सोनर की दुकान पर कोई नही था । मै डरता - डरता अंदर गया। इधर मैं मोल-भाव कर ही रह था की एक पति -पत्नी दुकान के अंदर आये और जैसे ही पत्नी की नज़र कंगन पर पड़ी, मेरे हाथ से लपककर ले ली। अपने पति से बोली - “ये तो मेरा कंगन है। “ किस्मत ख़राब होना दूसरी बात है पर अगर मैं थोड़ा-सा भी हिम्मती होता तो बात को संभल सकता था , पर नहीं ; जैसे ही ये शब्द मेरे कानो में पडे, मैं सन्न रह गया। पता ही नहीं चला की कब मेरी हिम्मत मुझसे दगा कर गयी ; कब मेरे पैर , मेरे दिमाग के साथ बेअदबी कर गयी ; कब मैंने खुद को एक बार फिर कायर घोषित कर दिया।
लोगो ने मुझे पकड लिया। पहले मुझे खुब पीटा और फिर पुलिस के हवाले कर दिया .… और यहाँ मेरी मुलाकात उस चोर से हुए जिससे मैंने चोरी की थी। गौरव नाम था उसका। गौरव नाम है मेरा। अजीब इत्तेफ़ाक़ है !
मै बेरोजगार था। भुकमरो-सी हालत थी। मैं उसके गैंग में शामिल हो गया। दो महीने बाद हमलोग जेल से निकले। बाहर निकल वह मुझे अपने घर ले गया और अपने गैंग के लोगो से मिलाया - एक था छोटू (जो की हर गैंग मैं होता है) , बबलू और दिलफेंक हसीना- गीता।
( २)
केशव
नाम - केशव कुमार सिङ्घ
उम्र-24
यही मेरी परिचय थी । कुछ खास बात नहीं थी मुझमें । एक साधारण-सा स्टेशन मास्टर था । घर में माँ थी , दादा- दादी थे , एक छोटा भाई था और एक छोटी बहन थी । पापा नहीं थे। वे आर्मी में थे। कारगिल युद्ध में वे देश के लिए शहीद हो गए। घर में सभी उनपर गर्व करते हैं। उनकी बहादुरी की मिशालें देते हैं ।
एक दिन यु ही कुछ बातें हो रही थी स्टेशन पर , स्टेशन-स्टाफो में। बात घूमते-फिरते दो साल पहले की एक घटना पर पहुंच गयी। संदीप जो पॉइंट-मैन था, सुना रहा था - “क्या कहू मास्टर साहेब ! मतलब ऐसा लगा जैसे किसी ने बम फोड़ दिया हो। आप सोच ही सकते है जब दो ट्रेन 70 -80 के स्पीड से सीधे टकराएंगी तो क्या आवाज़ होगा। एक आदमी तक नहीं बचा। “
मैने पुछा -”फिर उस स्टेशन-मास्टर का क्या हुआ ?”
संदीप बोला -”वो मत पुछिये । इतना मारा लोगो ने की बस पूछिए मत। वो तो पुलिस ने बचा लिया वरना लोग तो उसे मार ही देते। “
फिर बहुत देर तक लोग इस घटना की समीक्षा करते रहे। किसके गलती थी? गलती क्यों हुई ? इस हालत में स्टेशन मास्टर क्या कर सकता था ? वगैरह -वगैरह।
इसके कुछ दिन बाद, मैं, रात के वक़्त ड्यूटी पर था। अभी-अभी एक ट्रेन पास की थी मैंने। मैं रिपोर्ट लिख रहा था की तभी कॉल आया। कॉल पॉइंट-मैन का था। उसने घबराते हुए स्वर में कहा -”मास्टर साहेब ट्रेन पलट गयी... यहाँ से डेढ़ किलोमीटर दूर। “मेरे पैरो-तले जमीन खिसक गयी।समझ नहीं आ रहा था कि मुझे हो क्या रहा हैं ? मैं पुलिस को कॉल कर सकता था। मैं एम्बुलेंस बुला सकता था। मैं लोगो को मदद के लिए बोल सकता था। पर नहीं ,मैं बूत-सा खड़ा रहा। मेरे कानो में सिर्फ संदीप की आवाज़ गूंज रहीं थी। स्टेशन मास्टर ….लोग … जान से मार देते उसे … पुलिस। मुझे नहीं पता मुझे क्या हो गया था ? मैं बस भागता रहा। भागता रहा उन आवाज़ों से…. उस स्टेशन से…. मर रहे लोगो से और भागते-भागते पता ही नहीं चला कब मैं खुद से भी दूर हो गया।
अगले दिन खबर आयी कि ऐन वक़्त पर सहायता न मिलने की वजह से बहुत लोगो की मौत हो गयी। उस दिन मुझे एहसास हुआ की कितना बड़ा कायर हूँ मैं ! उस दिन मैं दुनिया के लिए और दुनिया मेरे लिए मर गयी। उस दिन मेरे फोटो के ऊपर ‘वांटेड’ लिखा गया और नीचे लिखा गया -
नाम - केशव कुमार सिङ्घ
उम्र- 24
(३)
गौरव - 1
मेरी पहली चोरी। कैसे भूल सकता हूँ वो दिन ! एक जंग बाहर चल रही थी, एक जंग अंदर। कोई बड़ा काम नहीं था। बस, स्टेशन पर सो रहे एक आदमी के बगल में , थोड़ी देर बैठ कर , उसकी अटैची लेकर भागनी थी। वैसे तो काम बहुत आसान था , पर यह डर लगा हुआ था की कही ये जग न जाये। उधर यह डर भी था की कही असफल रहे तो वो लोग मज़ाक उड़ाएंगे। एक तरफ पकड़े जाने का भय , तो दूसरी तरफ बेज़्ज़ती का और दोनों भय के बीच से गुज़रता मैंने अपनी पहली चोरी की। चोरी की उस खुशी के आगे ज़िन्दिगीभर की सारी खुशियाँ फीकी पड गयी। फिर क्या , मुझे चोरी का नशा-सा चढ़ गया। मुझे न पैसे से मतलब था , न सजा पाने की परवाह। मैं चोरी करता था क्यूंकि मुझे एक अजीब सा सुकून मिलता था खुद को हिम्मती शाबित करने में।
जहॉ हमलोग रहते थे ,वहॉ के बहुत से लोग चोर थे और कुछ मजदूर थे। वैसे तो सब सही था पर लड़कियों की हालत ठीक नहीं थी। हर दिन कोई न कोई आदमी अपनी पत्नी को पीट देता। मुझे बड़ा बुरा लगता था,पर किसी और को कोई फर्क नहीं पड़ता था। मैंने गौरव,बबलू ,छोटू, गीता सब से बात की, पर सब यही कहते कि उसकी पत्नी है, उसका अपना मामला है, हम किस हक़ से बोले? और तब मैं अपने आप से यह सवाल पूछता की क्या सचमुच सवाल हक़ का है या बात सही या गलत की है ? और मैं बिना कुछ जवाब सोचे दिल बहलाने की कोशिश करता, पर यह सवाल मुझे अँधेरे में भेड़िये की तरह हर वक़्त घूरता रहता। धीरे-धीरे मैं बेचैन होने लगा। मैंने लोगो को बहुत समझने की कोशिश की पर सब मुझे उल्टा जवाब दे देते। यहाँ तक की उनकी पत्निया भी मुझे डॉट देती। पर पानी मेरे सर से गुजर चुका था। एक दिन जब एक आदमी अपनी पत्नी को पीट रहा था , तब मैंने उसे घर से घसीट कर पीट दिया। उसकी पत्नी बेलन लेकर आयी और मुझ पर ही हमला करने लगी। मैंने उसे छोड़ दिया पर जाते-जाते, पूरे मौहल्ले को सुनाते, कह गया की अगर किसी ने आज से अपनी पत्नी पर हाथ उठाया तो मुझसे लड़ने को तैयार रहना। लेकिन असर इसका कुछ नहीं हुआ। न वे मानने वाले थे, न मैं। जिंदगी काफी फ़िल्मी हो गयी थी मेरी । मुझे लड़ने को शौक नहीं था पर जब बात लड़ाई पर आ जाये तो चुप रहना कायरता है।
(४)
गौरव(दुसरा) - 2
कितनी बार कहा था मैंने साले से | सौ बार समझाया था कि क्यों बेमतलब के दूसरों से पंगे ले रहा है? पर वह नहीं माना | उसे तो अपनी ही धुन सवार थी-औरतो का मसीहा बनने का |
क्या बताऊ, कैसे हुआ यह सब | उसने जो औरतों में आत्मविश्वास भरने का ठेका ले रखा था , उस वजह से उसके दुश्मन बढ़ते ही जा रहे थे | कुछ प्लांड नहीं था, शायद | बस , संयोगवश हो गया | एक आदमी शराब पीकर अपनी पत्नी को पीट रहा था | गौरव ने पहले उसे समझाने की कोशिश की, जब वह नहीं माना तो उससे लड़ाई कर बैठा ,जैसा की करता आ रहा था | झगडे की आवाज़ सुन कई लोग आ गए | उन लोगों में से बहुत से लोगों से उसने पहले ही झगड़ा कर रखा था | किसी को वह फूटी आँख नहीं भाता था।
इसबार सबको मौका मिल गया | गौरव बहादुरी से लड़ा , पर था तो वह अकेला ही ना | बहुत मारा सबने उसे | जब मैं,छोटू और बबलू वहां पहुंचे तो वह पूरी तरह से खून से लथपथ था | पहचाना नहीं जा रहा था | हम उसे बचाने की कोशिश कर रहे थे , पर सफल नहीं हो पा रहे थे | गीता को किसी ने पकड़ रखा था | उसने लड़-झगड़ कर अपना हाथ छुड़ाया और गुस्से से चिल्लाती हुई, उन औरतों से बोली -”शर्म आनी चाहिए तुम्हे अपने आप पर। जो तुम्हारे लिए लड़ता आया है , आज वो तुम्हारे लिए मर रहा है और तुम लोग बस कायरों की तरह देख रही हो | दुःख होता है मुझे आज औरत होने पर | कायर हो तुम लोग, नामर्द हो | ”
आखिरी वाक्य सुनकर सारे मर्द हॅसने लगे | उसमे से एक बोला - “नामर्द तो है ये औरतें। ” पर तभी एक सैलाब आया | सारी औरतें लाठी, डंडा, झाड़ू, बेलन जो मिला वह लेकर उन मर्दों की तरफ लपकी और उन्हें मार कर भगा दिया। पर गौरव , गौरव के लिए बहुत देर हो चुकी थी। हम उसके करीब गए। उसने बहुत ही तकलीफ से रुक-रुक कर कहा “मैं गौरव नहीं हूँ । मैंने तुम लोगो से सारी….बातें झूट कही थी । मेरा असली नाम केशव है। मैं स्टेशन मास्टर...हुआ करता था। एक बार .. ट्रेन पलट गयी। मैं डर कर भाग आया। … मेरे घरवाले कानपूर में रहते है। हो सके तो उन्हें … मेरे मय्यत में जरूर लाना। ”
उसकी आखिरी ख्वाहिश पूरी की हमने। वो लोग आये और सबने उनसे वही कहा जो केशव हमेशा से सुनना चाहता था,”आपका बेटा कितना बहादुर था !”
जब कभी मेरी और केशव की इंसानियत वाली बात पर झगड़ा होता था, तो वह यही कहता था कि चोरी , डकैती या खून ही गुनाह नहीं है, अपने कर्त्वयों का पालन ना करना भी एक अपराध है। अब उसकी बात मेरी समझ में आयी। दिल के दरारें मुझे दिखाई दिए।
मुझे उसकी बात समझ नहीं आती थी। मैंने उससे कई बार पूछा कि तू इतना शरीफ-सा आदमी, चोरी क्यों करता है? वह कहता “चोरी करते - करते मैंने खुद को पाया है। ” यह भी कितनी अजीब बात है ना कि आदमी क्या-क्या करता-करता खुद को पा ले, चलते -चलते कहा भटक जाये और भटकते -भटकते कहा पहुंच जाये ।
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